एक पत्र पिता द्वारा पुत्र को
“मेरे प्यारे बच्चों,जिस दिन तुम्हें यह लगे कि मैं बूढ़ा हो गया हूं,
तुम खुद में थोड़ा धीरज लाना और मुझे समझने की कोशिश करना…जब खाना खाते समय मुझसे कुछ गिर जाए… जब मुझसे कपड़े सहेजते न बनें… तो थोड़ा सब्र करना,
मेरे बच्चों…और उन दिनों को याद करना जब मैंने तुम्हें यह सब सिखाने में न जाने कितना समय लगाया था.मैं कभी एक ही बात को कई बार दोहराने लगूं तो मुझे टोकना मत. मेरी बातें सुनना.
जब तुम बहुत छोटे थे तब हर रात मुझे एक ही कहानीबार-बार सुनाने के लिए कहते थे, और मैं ऐसा ही करता था जब तक तुम्हें नींद नहीं आ जाती थी.मैं तुम्हें ज़िंदगी भर कितनाकुछ सिखाता रहा…अच्छे से खाओ, ठीक से कपड़े पहनो, बेहतर इंसान बनो, हर मुश्किल का डटकर सामना करो… याद है न?बढ़ती उम्र के कारण यदि मेरी याददाश्त कमज़ोर हो जाए… या फिर बातचीत के दौरान मेरा ध्यान भटक जाए तो मुझे उस बात को याद करनेको मौका ज़रूर देना. मैं कभी कुछ भूल बैठूं तो झुंझलाना नहीं… गुस्सा मतहोना… क्योंकि उस समय तुम्हें अपने पास पाना और तुमसे बातें कर सकना मेरी सबसे बड़ी खुशी होगी… सबसे बड़ी पूंजी होगी.एक दिन ऐसा आएगा जब मैं चार कदम चलने से भी लाचार हो जाऊंगा…उस दिन तुम मुझे मजबूती से थामके वैसे ही सहारा दोगे न जैसे मैं तुम्हें चलना सिखाता था? एक दिन तुम यह जान जाओगे कि अपनी तमाम नाकामियों और गलतियों के बाद भी मैंने हमेशा तुम्हारा भले के लिए ही ईश्वर से प्रार्थना की.अपने प्रेम और धीरज का सहारा देकर मुझे ज़िंदगी के आखरी पड़ाव तक थामे रखना. तुम्हारी प्रेमपूर्ण मुस्कान ही मेरा संबल होगी.कभी न भूलना मेरे प्यारे बच्चों… कि मैंने तुमसे ही सबसे ज्यादा प्रेम किया.''तुम्हारा पिता”
''हिंदी जेन से साभार रूप बड़ा या गुण
सच्चाई और छलना
दो बहने स्नान को गई।एक का नाम थे सच्चाई बाई।दूसरी थी छलना देवी।कपडे सरोवर के किनारे राखी और तैर-तैरकर नहाती रही।छलना बाहर निकली और उसने सच्चाई के कपडे पहन लिए।छलना देखें में कुरूप थी।बहन के परिधान पहनकर सुन्दर लगने लगी।वह चल दी,बिना यह प्रतीछा किये कि उसके कपड़ो के बिना सच्चाई कैसे आएगी।सच्चाई बाहर निकली।देखा छलना उसके कपडे पहनकर जा चुकी है। करती क्या? जो कपड़े सामने रखे थे,मैले-कुचैले वही पहनकर इज्जत बचाई और रोती घर लौट आई। छलना तो घर न जाकर कही और चली गई और फिर कभी नहीं आई।
आज भी यही स्थिति है।छलना सुन्दर दिखती है।एवं ठीक सच्चाई जैसी दिखती है।लोगों को ठगती है,ठगती रहेगी - अखंड ज्योति
ध्यान परमात्मा का
अकबर आखेट पर था।नमाज की बेला आ गई।उसने जल्दी से वस्त्र बिछाया और नमाज पढना आरम्भ कर दिया।इतने में एक युवती अपने प्रियतम को ढूढती उधर आ निकली।उसका ध्यान तो दूसरी ओर था।कपडे पर पाँव रख वह आगे बढ़ गई।
अकबर चिल्लाया - "क्यों री !तुझे दिखा नहीं।मैं नमाज में लीन था,फिर भी तू आखें खोलकर चलने वाली,मेरे कपड़े पर पैर रखकर चली गई।"युवती ने जवाब दिया वह बड़ा मार्मिक है -"मैं तो अपने प्रियतम की खोज में मग्न थी,इसलिये मेरा ध्यान आपकी ओर नहीं गया।मगर आप तो भक्ति में मग्न थे,फिर आपने भला मुझे कैसे देख लिया!लगता है आपका ध्यान नमाज की ओर नहीं,मेरी ओर था।"
हम में से कितने जप करते है,अरदास करते है,नमाज पढ़ते हैं,पर क्या मन परमात्मा में लगाकर पढ़ते है।
सोचें ! -अखंड ज्योति
स्वर्ग और नरक
सेनापति के बल-कौशल की चर्चा अक्सर होती थी।उससे उनका घमंड भी उसी अनुपात में बढ़ता रहा।एक दिन वे चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक नानुशिगे के पास गए।जाते ही उनसे कहा - "हे संत मुझे स्वर्ग और नरक के बारे में बताएं? साथ में अपना परिचय भी बड़े गर्व के साथ दिया।"
सुनकर संत बोले - "शक्ल तो भिखारी जैसी है,किसने सेनापति बना दिया तुम्हें ? सुनते ही आप खो बैठा। तलवार खींच ली। नानुशिगे बोले -"अच्छा तो तुम्हारे पास तलवार भी है? क्या लोहे की है सचमुच ? धार भी चढ़ी भी है कि नहीं?क्या तुम्हारी कलाइयों में इतना दम है?"सेनापति आपा खो बैठा।हाथ काँपने लगे।लगा कि कभी भी वह तलवार चला ही देगा।
अब तक हँस रहे संत अब गंभीर हो गए। बोले - "हे योद्धा !यही है नरक,जो अच्छे - अच्छों को दिखाई नहीं देता और वे उसकी लपेट में आ जाते हैं।" योद्धा शांत हो गया। तलवार म्यान में रखकर उसने विनम्र भाव से क्षमा माँगी एवं उनके चरणों में बैठ गया।
नानुशिगे बोले - "यही है विवेकशीलता का स्वर्ग। इसी में तुम्हें आत्मिक शांति मिलेगी।"
सेनापति एक पथ पढ़कर लौटा और फिर बदल गया। - -अखंड ज्योति
“मेरे प्यारे बच्चों,जिस दिन तुम्हें यह लगे कि मैं बूढ़ा हो गया हूं,
तुम खुद में थोड़ा धीरज लाना और मुझे समझने की कोशिश करना…जब खाना खाते समय मुझसे कुछ गिर जाए… जब मुझसे कपड़े सहेजते न बनें… तो थोड़ा सब्र करना,
मेरे बच्चों…और उन दिनों को याद करना जब मैंने तुम्हें यह सब सिखाने में न जाने कितना समय लगाया था.मैं कभी एक ही बात को कई बार दोहराने लगूं तो मुझे टोकना मत. मेरी बातें सुनना.
जब तुम बहुत छोटे थे तब हर रात मुझे एक ही कहानीबार-बार सुनाने के लिए कहते थे, और मैं ऐसा ही करता था जब तक तुम्हें नींद नहीं आ जाती थी.मैं तुम्हें ज़िंदगी भर कितनाकुछ सिखाता रहा…अच्छे से खाओ, ठीक से कपड़े पहनो, बेहतर इंसान बनो, हर मुश्किल का डटकर सामना करो… याद है न?बढ़ती उम्र के कारण यदि मेरी याददाश्त कमज़ोर हो जाए… या फिर बातचीत के दौरान मेरा ध्यान भटक जाए तो मुझे उस बात को याद करनेको मौका ज़रूर देना. मैं कभी कुछ भूल बैठूं तो झुंझलाना नहीं… गुस्सा मतहोना… क्योंकि उस समय तुम्हें अपने पास पाना और तुमसे बातें कर सकना मेरी सबसे बड़ी खुशी होगी… सबसे बड़ी पूंजी होगी.एक दिन ऐसा आएगा जब मैं चार कदम चलने से भी लाचार हो जाऊंगा…उस दिन तुम मुझे मजबूती से थामके वैसे ही सहारा दोगे न जैसे मैं तुम्हें चलना सिखाता था? एक दिन तुम यह जान जाओगे कि अपनी तमाम नाकामियों और गलतियों के बाद भी मैंने हमेशा तुम्हारा भले के लिए ही ईश्वर से प्रार्थना की.अपने प्रेम और धीरज का सहारा देकर मुझे ज़िंदगी के आखरी पड़ाव तक थामे रखना. तुम्हारी प्रेमपूर्ण मुस्कान ही मेरा संबल होगी.कभी न भूलना मेरे प्यारे बच्चों… कि मैंने तुमसे ही सबसे ज्यादा प्रेम किया.''तुम्हारा पिता”
''हिंदी जेन से साभार रूप बड़ा या गुण
एक राजा को राज्य के राजस्व विभाग को देख रेख के लिए उपयुक्त व्यक्ति की तलाश थी।उन्होंने अपने महामंत्री से एक ऐसे योग्य व्यक्ति को ढूँढ़कर लेन को कहा।कुछ दिनों बाद महामंत्री एक व्यक्ति को लेकर आए। राजा ने उसे पद तो प्रदान कर दिया,पर मंत्री से बोले-"ये आदमी योग्य तो है,पर दिखने में आकर्षक नहीं है।इसका रूप-रंग राजसी कार्यो के लिए उचित नहीं।"मंत्री यह सुनकर भी चुप रहे।
कुछ दिनों बाद,एक दिन गर्मी के मौसम में राजा को प्यास लगी।मंत्री ने राजा के सेवक से कहा कि 'महाराज को सोने से गिलास में पानी दो।' पानी गरम था,राजा से घूंट भर भी न पिया गया।तब मंत्री सेवक से कहा कि 'अब महाराज के लिए सुराही का पानी लाओ।'सुराही का पानी पीते ही महाराज की प्यास भुझ गई।मंत्री का इशारा महाराज की समझ चूका था कि मनुष्य की योग्यता और पात्रता की पहचान उसके रूप-रंग से नहीं।वरन उसके आन्तरिक गुणों से होती है।
- अखंड ज्योति सच्चाई और छलना
दो बहने स्नान को गई।एक का नाम थे सच्चाई बाई।दूसरी थी छलना देवी।कपडे सरोवर के किनारे राखी और तैर-तैरकर नहाती रही।छलना बाहर निकली और उसने सच्चाई के कपडे पहन लिए।छलना देखें में कुरूप थी।बहन के परिधान पहनकर सुन्दर लगने लगी।वह चल दी,बिना यह प्रतीछा किये कि उसके कपड़ो के बिना सच्चाई कैसे आएगी।सच्चाई बाहर निकली।देखा छलना उसके कपडे पहनकर जा चुकी है। करती क्या? जो कपड़े सामने रखे थे,मैले-कुचैले वही पहनकर इज्जत बचाई और रोती घर लौट आई। छलना तो घर न जाकर कही और चली गई और फिर कभी नहीं आई।
आज भी यही स्थिति है।छलना सुन्दर दिखती है।एवं ठीक सच्चाई जैसी दिखती है।लोगों को ठगती है,ठगती रहेगी - अखंड ज्योति
ध्यान परमात्मा का
अकबर आखेट पर था।नमाज की बेला आ गई।उसने जल्दी से वस्त्र बिछाया और नमाज पढना आरम्भ कर दिया।इतने में एक युवती अपने प्रियतम को ढूढती उधर आ निकली।उसका ध्यान तो दूसरी ओर था।कपडे पर पाँव रख वह आगे बढ़ गई।
अकबर चिल्लाया - "क्यों री !तुझे दिखा नहीं।मैं नमाज में लीन था,फिर भी तू आखें खोलकर चलने वाली,मेरे कपड़े पर पैर रखकर चली गई।"युवती ने जवाब दिया वह बड़ा मार्मिक है -"मैं तो अपने प्रियतम की खोज में मग्न थी,इसलिये मेरा ध्यान आपकी ओर नहीं गया।मगर आप तो भक्ति में मग्न थे,फिर आपने भला मुझे कैसे देख लिया!लगता है आपका ध्यान नमाज की ओर नहीं,मेरी ओर था।"
हम में से कितने जप करते है,अरदास करते है,नमाज पढ़ते हैं,पर क्या मन परमात्मा में लगाकर पढ़ते है।
सोचें ! -अखंड ज्योति
स्वर्ग और नरक
सेनापति के बल-कौशल की चर्चा अक्सर होती थी।उससे उनका घमंड भी उसी अनुपात में बढ़ता रहा।एक दिन वे चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक नानुशिगे के पास गए।जाते ही उनसे कहा - "हे संत मुझे स्वर्ग और नरक के बारे में बताएं? साथ में अपना परिचय भी बड़े गर्व के साथ दिया।"
सुनकर संत बोले - "शक्ल तो भिखारी जैसी है,किसने सेनापति बना दिया तुम्हें ? सुनते ही आप खो बैठा। तलवार खींच ली। नानुशिगे बोले -"अच्छा तो तुम्हारे पास तलवार भी है? क्या लोहे की है सचमुच ? धार भी चढ़ी भी है कि नहीं?क्या तुम्हारी कलाइयों में इतना दम है?"सेनापति आपा खो बैठा।हाथ काँपने लगे।लगा कि कभी भी वह तलवार चला ही देगा।
अब तक हँस रहे संत अब गंभीर हो गए। बोले - "हे योद्धा !यही है नरक,जो अच्छे - अच्छों को दिखाई नहीं देता और वे उसकी लपेट में आ जाते हैं।" योद्धा शांत हो गया। तलवार म्यान में रखकर उसने विनम्र भाव से क्षमा माँगी एवं उनके चरणों में बैठ गया।
नानुशिगे बोले - "यही है विवेकशीलता का स्वर्ग। इसी में तुम्हें आत्मिक शांति मिलेगी।"
सेनापति एक पथ पढ़कर लौटा और फिर बदल गया। - -अखंड ज्योति
No comments:
Post a Comment