Thursday, December 20, 2012

ज्ञान की बात


                                 जोश के साथ होश



    इंद्रियों के दास होकर नहीं, स्वामी होकर रहना चाहिए। संयम के बिना सुख एवं प्रसन्नता प्राप्त नहीं हो सकती। नित्य नए-नए भोगों के पीछे दौडऩे का परिणाम दु:ख और अशान्ति है।
श्रीमद्भगवद् गीता पढऩे, सुनने या समझने की सार्थकता इसी में है कि इंद्रियों के वेग तथा प्रवाह में बह जाना, मानव-धर्म नहीं है। किसी भी साधन-योग, तप, जप, ध्यान इत्यादि का प्रारंभ
संयम बिना नहीं होता।
संयम के बिना जीवन का विकास नहीं होता। जीवन के सितार पर हृदयलोक में मधुर संगीत उसी समय गूँजता है, जब उसके तार, नियम तथा संयम में बँधे होते हैं।
जिस घोड़े की लगाम सवार के हाथ में नहीं होती, उस पर सवारी करना खतरे से खाली नहीं है। संयम की बागडोर लगाकर ही घोड़ा निश्चित मार्ग पर चलाया जा सकता है। ठीक यही दशा मन रूपी अश्व की है। विवेक तथा संयम द्वारा इंद्रियों को अधीन करने पर ही जीवन-यात्रा आनंदपूर्वक चलती है।

                                  हम स्वयं अपने स्वामी बनें

तुम व्यर्थ में दूसरों के अनर्थकारी संदेशों को ग्रहण कर लेते हो। तुम वह सच मान बैठते हो, जो दूसरे कहते हैं। तुम स्वयं अपने आप को दु:खी करते हो कि दूसरे लोग हमें चैन नहीं लेने देते। तुम स्वयं ही दु:ख का कारण हो, स्वयं ही अपने शत्रु हो। जो किसी ने कुछ कह दिया, तुमने मान लिया। यही कारण है कि तुम उद्विग्न रहते हो।
सच्चा मनुष्य एक बार उत्तम संकल्प करने के लिए यह नहीं देखता कि लोग क्या कह रहे हैं। वह अपनी धुन का पक्का होता है। सुकरात के सामने जहर का प्याला रखा गया, पर उसकी राय को कोई न बदल सका। बंदा बैरागी को भेड़ों की खाल पहना कर काले मुँह गली-गली फिराया गया, किन्तु उसने दूसरों की राय न मानी।
दूसरे के इशारों पर नाचना, दूसरों के सहारे पर निर्भर रहना, दूसरों की झूठी टीका-टिप्पणी से उद्विग्न होना मानसिक दुर्बलता है। जब तक मनुष्य स्वयं अपना स्वामी नहीं बन जाता, तब तक उसका संपूर्ण विकास नहीं हो सकता। दूसरों का अनुकरण करने से मनुष्य अपनी मौलिकता से हाथ धो बैठता है।

स्वयं विचार करना सीखो। दूसरों के बहकावे में न आओ। कत्र्तव्य-पथ पर बढ़ते हुए, दूसरे क्या कहते हैं, इसकी चिंता न करो। यदि ऐसा करने का साहस तुम में नहीं है, तो जीवन भर दासत्व के बंधनों में जकड़े रहोगे।

 

                              अपनी इच्छाशक्ति को बढ़ाइए

जहाँ चाह वहाँ राह है’ यह एक पुरानी कहावत है, परंतु इसमें बड़ा बल है। मनुष्य की जैसी अच्छी-बुरी इच्छा होती है, वह उसी के अनुसार अपनी समस्त शक्तियों को लगा देता है और उसमें सफल होता है। मनुष्य की जैसी इच्छा होती है, वह वैसा ही बनता जाता है। कवि, लेखक, वक्ता, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनने की इच्छा रखने वाला, अपनी क्रियाओं को उसी दिशा में मोड़ देता है और अपनी सारी शक्तियों को एकाग्र करके उसमें लगा देता है, परिणामस्वरूप वह वही बन जाता है।
हमारा भविष्य हमारे अपने हाथों में है। उसको बनाने वाले हम स्वयं ही हैं। यही समय है, जब हमें अपने मार्ग का निश्चय कर लेना चाहिए, नहीं तो बाद में पछताना पड़ेगा। हम स्वयं अपने भविष्य को अंधकारमय बनाते हैं। इच्छाशक्ति  एक ऐसी वस्तु है, जो आसानी से हमारे स्वभाव में आ जाती है। इसलिए दृढ़ इच्छा करना सीखो और उस पर दृढ़ बने रहो। इस तरह से अपने अनिश्चित जीवन को निश्चित बना कर उन्नति का मार्ग प्रशस्त करो। मनुष्य को पिछड़ा हुआ और गिरी हुई परिस्थितियों में रखने वाली कोई वस्तु है, तो वह इच्छाशक्ति का अभाव है, जिसे हमें दूर करना है। यदि हमारी शक्तियाँ गुप्त पड़ी रहेंगी, तो हम दूसरों के लिए कुछ करने में कैसे समर्थ होंगे? पहले हमें अपनी इच्छाशक्ति बढ़ाना चाहिए, तभी हमें संतोष होगा कि यहाँ हम मुर्दो की तरह नहीं, बल्कि जिंदों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
-LAAL MASHAL

                         
                   प्राचीन साहित्य में प्राण का वैज्ञानिक  विवेचन 

इसमें प्राण की परिभाषा,उसका स्वरुप,प्राण के अंग-स्थान व कार्य एवं प्राण का वैज्ञानिक विवेचन किया गया है।प्राण वह शक्ति है जिससे हमारे शरीर की सभी क्रियाओ का संचालन होता है। इसकी निर्बलता को  ही रोग कहते हैं।शरीर में अगर प्राणशक्ति प्रचुर मात्रा में रहती है तो शरीर पूर्ण स्वस्थ रहता है।इसलिए शास्त्रों ने इसे अमृत की संज्ञा दी है।


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